दशहरा:कल्पना मनोरमा
दशहरा,इसका क्या
ये तो आता-जाता रहेगा सालों साल
बिना रुके
आगे भी कई सालों तक
पीटी जाती रहेगी
पीढ़ी दर पीढ़ी बिना रुके
परंपरा की लकीर
लीक से हटकर कुछ भी करना
हो सकता है जोख़िम भरा
इसमें लगानी पड़ती है
पूरी ताकत
छोड़ने पड़ते हैं कई
सुर्ख़ डर तड़पते हुए
यदि लगा दी अपनी ताकत
लीक तोड़ने में
नया कुछ रचने में
तो दिनभर का खाया-पिया
पचायेगा कौन
आज़कल सुबह का खाया
रात तक पचाने में
पड़ता है राम से काम
इसीलिए
राम के साथ खड़ा किया जाता है
एक और धनुषधारी
मुहूर्त साधने हेतु
निशाना लगना जरूरी है
चाहे बाण हो किसी का भी
परवाह नहीं
रावण भी
ढह जाता है कुछ सोचकर
चुपचाप ,उसके यहाँ भी
चीत्कार करने की है
सख़्त मनाही
रावण भी जानता है
स्वाभिमान की ठेस होती है
बहुत ख़तरनाक
चिल्लाने से क्या मिलेगा
सिवाय जग हँसाई के
वो भी चुपचाप मर जाता है
और दूसरे दिन से ही
पुनः उठाने लगता है सिर
कुनबे के साथ
बिल्कुल नए रूप में
सोचना तो राम को होगा
क्या वे , रह पाएंगे
सर्वशक्तिमान
अगले दशहरे तक
कल्पना मनोरमा