शून्य मन
( प्रेरणा गुप्ता)
हमेशा की तरह, बाहर से आता शोर, चलती गाड़ियों के पिंपियाते-किंकियाते हॉर्न और सम्मलित परिवार का कोलाहल आज उन्हें जरा भी विचलित नहीं कर पा रहा था | वरना तो एक दिन वो था, जब वह इन सबसे परेशान होकर शान्ति की तलाश में उस शांति-उपवन में जा बैठे थे, जहाँ बचपन में वह कभी सुकून से खेला करते थे | मगर अब शांति-उपवन भी पहले जैसा नहीं रहा था, बढती आबादी के चलते झूले में झूलते बच्चों की रोने-हँसने की आवाजों के साथ, पेंग बढ़ाते झूले, किसी जंग लगीं विशालकाय चलती कैंची की कैंच-कैंच की सी कर्कश आवाजें निकालते उनके श्रवण-तन्तुओं को घायल किये दे रहे थे | वह अपने दोनों हाथों से, अपने कानों को कसकर बंद करते हुए, व्याकुल होकर अपने आप से बोल पड़े, “बस अब और नहीं | ये शोर मैं कतई बर्दाश्त नहीं कर सकता |” और वापिस अपने घर को लौट पड़े |
रॉकिंग-चेयर पर बैठे वह अपनी तेज चलती हुई असंतुलित साँसों के साथ अपने मन का तारतम्य बिठाने की चेष्टा कर ही रहे थे, तभी उनके अन्दर से एक आवाज आई ,”ये शोर बाहर का नहीं है, ये तुम्हारे अन्दर का है, जिसके जंजाल में तुम खुद ही फँसे हुए हो और जिस शान्ति की तलाश में दर-दर भटक रहे हो वह बाहर किसी जंगल या उपवन में नहीं मिलती, वह तुम्हारे अंदर ही विराजमान है |”
आज वह अपनी ऑंखें मूंदे ध्यान में, अपने अन्दर के शांत समुन्दर की गहराई में गोते लगा रहे थे और मन शून्य में समाहित हो चला था |
प्रेरणा गुप्ता
कानपुर
Loading...