शहादत : सन्तों का व्योपार
(श्री गुरु अर्जुन देव जी के शहीदी दिवस पर विशेष )
बात एक अनोखी और लाजवाब परम्परा की,वह परम्परा जो एक जिस्म के रूप में से मिटकर हज़ारों जिस्मोंं में प्राण बनकर दौड़ने लगती है,वह परम्परा जो एक ऐसी फसल के बीज का कार्य करती है जिसमेंं “गुलाबों की फ़सल” पैदा होती है।गुलाबों की फसल वह फसल जिसको जितनी काटो उतना और बढ़ती है।वह फसल जो रक्त रँगी और महक से भरी होती है और हर ठाकुर द्वारे पर मान पाती है।जी हां,बात सिक्ख धर्म की है जिसमें गुरुवाणी की महक है,कुर्बानी या शहादत की रिवायत है ,इस रिवायत की शुरुआत करने वाले थे—-“श्री गुरु अर्जुन देव जी”!! जिनका आज पावन शहीदी दिवस है ।
आपका जन्म चौथी पातशाही श्री गुरुराम दास और माता भानी जी के यहां गोइंदवाल साहिब में 15 अप्रैल 1563 ईसवी को हुआ। आपके दो भाई —महादेव जी और पृृथी चन्द थे ।आपकी शादी 16 साल की उम्र में जालन्धर के गांव मौ साहिब के किशन चन्द की सपुत्री माता गंगा जी से हुई और एक बेटा (छठी पातशाही) हरगोबिंद पैदा हुआ ।इनका पालन पोषण उच्च रूह तीसरी पातशाही गुरु अमरदास और भाई गुरदास जी जैसीे सन्त आत्माओं के मध्य हुआ इसी लिए इन्हें जन्म से ब्रह्मज्ञानी बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।गुरु अमरदास जी ने तो (जब यह एक साल की उम्र में उनके अढ़ाई फुट ऊंचे सिहांसन पे चढ़ने के प्रयास कर रहे थे ) इनकी माता और अपनी पुत्री भानी जी से कह दिया था कि…”दोहता,बानी का बोहता” भाव कि यह वाणी का समंदर है और यह गुरुगद्दी का होने वाला वारिस है…महापुरुषों के संग से इनके स्वभाव में भक्ति के साथ साथ सहन शीलता का समंदर पैदा हो गया ।
आज जिस गुरु ग्रन्थ साहिब जी के प्रकाश से दुनिया रोशन होती है उसका संकलन गुरु अर्जुन देव जी ने भाई गुरदास जी के साथ मिलकर किया था ।यह मध्यकालीन युग में रचित सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ है और दूरदर्शिता से भरा पड़ा एक सम्पूर्ण खज़ाना है ।इसमें 36 वाणीकारों की 31रागों में लयबद्ध अद्भुत अमृत संग्रह है,जिसमे कि 5894 श्लोक है और 2216 श्लोक गुरु अर्जुन देव जी के है जो कि 30 रागों पे आधारित है।इस ग्रन्थ की बेमिसाल बात यह है कि इसमें 15 हिन्दू और मुसलमान भक्तों ,11 भट्टों 6 गुरुओं सहित महापुरुषों की वाणी विद्यमान है…अगर किसी ने धर्मनिरपेक्षता की जीती जागती मिसाल देखनी है तो गुरु ग्रन्थ साहिब जी के दर्शन कर ले ।.यह सोच श्री गुरु अर्जुन देव जी की है।यही नही इन्होंने हरिमन्दिर साहिब के चार दरवाजे चार वर्णों के लिए तामीर करवाए थे जोकि धर्म और जातिवाद को समाप्त करने का संकेत है ।साईं मिया मीर जी को खुद लाहौर से लेकर आये थे और सिक्खी के मक्के की बुनियाद या नींंव उन्हींं से रखवाई थी।. आप उच्च कोटि के धर्मनिरपेक्षता वादी थे ।
आपकी सुंदर वाणी सुखमनी साहिब राग गउड़ी पर आधारित है जिसकी 24 अष्टपदी हैं जो कि ह्रदय में शीतलता भरकर इंसान को चिंतामुक्त करती है ।
दोस्तो ! जो भी प्रेम और भाईचारे का संदेश लेकर दुनिया में निकला ।समाज और अधर्म ने उसे अपमानित किया,पत्थर मारे, गालियां दी और अति अपमानित किया ….चाहे वो सुकरात था,ईसा था,मंसूर था या फिर तेग बहादुर या गुरु अर्जुन जी हों ।अक्सर जब अपने दुश्मन बन जाते हैं तो घर की बुनियाद हिलती है।गुरु अर्जुन देव जी के बड़े भाई पृथी चन्द उनके लिए मुश्किलें पैदा करते रहे..दूसरी तरफ अगर हुकूमत आपके खिलाफ हो जाए..भ्र्ष्टाचार आड़े आ जाए…(जो कि अक्सर संतो की राह में आता है) जीवन की राह और कठिन हो जाती है…तो दीवान चंदू शाह जो कि शाही दरबार मे रसूख वाला व्यक्ति था,वह अपनी बेटी की शादी गुरु जी के बेटे हरगोबिंद जी से करना चाहता था,जिसे कि संगत की रज़ा से गुरु जी ने स्वीकार नही किया था और वह गुरु जी का बड़ा दुश्मन बनकर उभरा था।.सबसे बड़ी दुश्मनी हिन्द के मौजूदा शहंशाह जहांगीर से कुदरती तौर पर पैदा हुई कि शहंशाह अकबर जो कि एक नेक इंसान था और गुरुघर का कद्रदान था,वह अपने विलासी बेटे जहांगीर की जगह अपने काबिल पोते खुसरो को शहंशाह बनाना चाहता था और अकबर की मौत के बाद खुसरो नेंं हिन्द की गद्दी के लिए अपने पिता के खिलाफ बगावत की,वह हारकर अफगानिस्तान की तरफ दौड़ा और रास्ते में गोइंदवाल में गुरु जी से आशीवार्द लेने रुका।गुरु जी ने रिवायती तौर पर आशीवार्द दिया और जहांगीर को यह बात अंदर तक चुभी और वो तुजक-ए- जहांगीरी में लिखता है कि”रावी नदी के तट पर एक पाखंडी गुरु का चोला पहने लोगों को गुमराह कर रहा है,मेरा मन करता है कि मैं उसका यह कारोबार बंद करवाऊं “दरअसल विलासी जहांगीर के मन में सन्तात्मा गुरु अर्जुन देव जी के लिए गुस्सा पहले ही भरा हुआ था और बाकी काम चंदू शाह ने पूरा किया। दिल्ली जाकर उसके कान भरे कि गुरु ग्रंथ साहिब में इस्लामियत के खिलाफ लिखा गया है और जानबूझ कर इसमे इस्लाम को कोई जगह नही दी गई। जहांगीर ने छानबीन करवाई।कुछ भी गलत न था..फिर बहाना बनाया गया कि अगर यह ग्रन्थ इतना ही धर्म निरपेक्ष है तो इसमें हज़रत मोहम्मद की वाणी को जगह दी जाए..गुरु जी ने साफ इंकार कर दिया कि इसमें ईश्वर की आज्ञा से सब लिखा गया है..इंसानी हुकुम इसमेंं स्थान नही पा सकता..तो 15 मई 1606 को इन्हें परिवार समेत गिरफ्तार करने का हुक्म जारी हुआ और मूर्तज़ाख़न से गुरु जी के घर की लूट करवाई गई..लाहौर जाने से पहले गुरु अर्जुन देव जी छठी पातशाही को भाई गुरदास और भाई बुड्डा जी के हवाले कर गए थे और 5 सिक्खों् भाई जेठा जी,भाई पेणआ जी,भाई बिधिया जी,भाई लंगाह जी और भाई पिराना जी सहित शाही दरबार लाहौर पहुंचे।.यहां जहांगीर ने उनपर बागी शहज़ादे खुसरो की सहायता करने के इल्जाम में 2 लाख रुपये जुर्माना लगाया।लेकिन उन्होंने इसे देने से इन्कार कर दिया..यहां चंदू शाह ने उन्हें लालच भी दिया और धमकाया भी,लेकिन संत स्वाभिमानी होते है,यह कभी झूठ को स्वीकार नही करते।अंततः गुरु जी पर “यासा व सियासत” कानून के तहत कत्ल करने का हुक्म लागू हुआ..यासा व सियासत के तहत इंसान को इस तरह से मारा जाता है कि उसका खून धरती पे न गिरे….तो पहले दिन गुरु जी को उबलती देग में उबाला गया..दूसरे दिन (30 मई 1606 को)तपती हुई लौह(तवा) पे बिठाया गया ,केश खोले गए और गर्म गर्म रेत जिस्म पे डाली गई…इस मंज़र को देखकर उनका मुरीद साई मियां मीर और उनका मुरीद निजामुदीन चीख पड़े थे..लेकिन तपती लौह पे बैठे गुरु जी ने कहा था” साई मियामीर, देख तेरे शहर वाले मुझसे कितनी मोह्हबत करते है और मेरा कितना प्यारा स्वागत कर रहे हैं “…इसके बाद गुरु जी को झुलसे जिस्म संग रावी नदी में स्नान करने का हुक्म जारी हुआ..वो रावी में उतरे और फिर वापस नही निकले…रावी नदी के जल से एक ही आवाज़ आ रही थी……
तेरा कीया मीठा लागे ।।
हरि नामु पदार्थ नानक मांगै ।
राजकुमार,शिक्षक,अमृतसर।9592968886
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वाहे गुरु दा ख़ालसा वाहे गुरु दी फ़तह । मेरा नमन गुरु जी को ।